Wednesday, 19 August 2015

ब्लूम्स वर्गिकी

ब्लूम कमल
ब्लूम की वर्गिकी (Bloom's taxonomy) शिक्षा के अन्तर्गत 'सीखने के उद्देश्यों' के वर्गीकरण से सम्बन्धित है। यह नाम बेंजामिन ब्लूम के नाम पर रखा गया है जो उक्त वर्गीकरण सुझाने वाली समिति के अध्यक्ष थे। ब्लूम टक्सॉनोमी 1956 में बनाया गया था। इसके निर्माता माहान शैक्षिक मनोवैज्ञानिक ड्र. बेंजामिन ब्लूम हैं। उन्होने इसका निर्माण शिक्षा के शेत्र में सोच के उच्च प्रपत्र को बढ़ावा देने के लिए किया था। इसका प्रथम उदेश्या शिक्षा के अवधारणाओं, प्रक्रियाओं , प्रक्रियाओं, और सिद्धांतों के विश्लेषण और मूल्यांकन का है। इसका अक्सर इस्तेमाल एजुकेशनल, ट्रैनिंग, आंड लर्निंग प्रोसेसस के निर्माण में किया जाता है।[1]
"टक्सॉनोमी" का मतलब है " वर्गीकरण " अत: ब्लूम टक्सॉनोमी शिक्षा को सीखने के रूपों और स्तर के वर्गीकरण का एक प्रयास है। यह सुझाव दिया है कि ब्लूम टक्सॉनोमी में उच स्तर को प्रभावी ढंग से प्राप्त नहीं किया जा सकता अगर निचले स्तर को प्राप्त ना किया हो। इसलिए इसका वर्गीकार्ण 3 भागो मे किया गया है- कॉग्निटिव डोमेन, अफेक्टिव डोमेन अथवा साइकमोटर डोमेन।[2]

कॉग्निटिव

संज्ञानात्मक डोमेन ज्ञान और बौद्धिक कौशल का विकास शामिल करता है(ब्लूम, 1956) तथ्यों के स्मार्ण की कला इसमें शामिल होती है इसकी 6 प्रथम श्रेणियाँ हैं- -ज्ञान -समझ -उपयोग -विश्लेषण -संश्लेषण -मूल्यांकन
यह माना जाता है की कॉग्निटिव डोमेन में वर्गीकार्ण कठिनाइयों की उपाधि को ध्यान मे रखकर होता है। [3]

ब्लूम'स रिवाइज़्ड टक्सॉनोमी

लॉरीन आंडर्सन ने दवीड करत्वोल के साथ मिलकर ब्लूम रिवाइज़्ड टक्सॉनोमी के परिवर्तनों मे योगदान दिया है जिनमें सबसे प्रथम प्रिवर्तन है जहाँ संज्ञा शब्दों को हटाकर क्रिया शब्दों का प्रयोग किया गया है [4]

फायदे

ब्लूम टक्सॉनोमी विद्यार्थी के बौद्धिक विकास में योगदान देती है। इसके वर्गीकरणों के उपयोग से विद्यार्थी एक विशए को अपने तरीके से समझ सकता है और उसके समाधानो पर अपनी सोच से विचार कर सकता है। ब्लूम टक्सॉनोमी के मध्यम से विद्यार्थी विचारो की गहेरईओं का विश्लेषण बड़े उपयोगी रूप से कर सकता है। यहाँ अध्यापक एक सहायक की तरह होती है जो विचारों को समझने मे केवल सहायता करती है। इस तरह विद्यार्थी स्वतंत्र बन जाता है। [5]

Tuesday, 18 August 2015

PREMCHANDH

प्रेमचंद

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
धनपत राय श्रीवास्तव
Premchand02.jpg
प्रेमचंद
उपनाम: प्रेमचंद
जन्म: ३१ जुलाई, १८८०
ग्राम लमही, वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत
मृत्यु: ८ अक्टूबर, १९३६
वाराणसी, उत्तर प्रदेश, भारत
कार्यक्षेत्र: अध्यापक, लेखक, पत्रकार
राष्ट्रीयता: भारतीय
भाषा: हिन्दी
काल: आधुनिक काल
विधा: कहानी और उपन्यास
विषय: सामाजिक
साहित्यिक
आन्दोलन
:
आदर्शोन्मुख यथार्थवाद
प्रगतिशील लेखक आन्दोलन
प्रमुख कृति(याँ): गोदान, कर्मभूमि, रंगभूमि, सेवासदन उपन्यास
इनसे प्रभावित: रेणु, श्रीनाथ सिंह, सुदर्शन, यशपाल
हस्ताक्षर: Hastakshar premchand.jpg
प्रेमचंद (३१ जुलाई, १८८० - ८ अक्टूबर १९३६) हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं।[1] मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव वाले प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है।[2] उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर संबोधित किया था।[3][4] प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया। आगामी एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। वे एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी (विद्वान) संपादक थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में, जब हिन्दी में की तकनीकी सुविधाओं का अभाव था, उनका योगदान अतुलनीय है। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्‍य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्‍यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं।

जीवन परिचय

प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे।[5] उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्‍हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया[6]१८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्‍होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए.[7] पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए।
सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा।[8] उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार पंद्रह साल की उम्र में हुआ जो सफल नहीं रहा। वे आर्य समाज से प्रभावित रहे[9], जो उस समय का बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और १९०६ में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया।[10] उनकी तीन संताने हुईं- श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। १९१० में उनकी रचना सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियाँ जब्त कर नष्ट कर दी गईं। कलेक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। इस समय तक प्रेमचंद, धनपत राय नाम से लिखते थे। उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक और उनके अजीज दोस्‍त मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद वे प्रेमचन्द के नाम से लिखने लगे। उन्‍होंने आरंभिक लेखन ज़माना पत्रिका में ही किया। जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास मंगलसूत्र पूरा नहीं हो सका और लम्बी बीमारी के बाद ८ अक्टूबर १९३६ को उनका निधन हो गया। उनका अंतिम उपन्यास मंगल सूत्र उनके पुत्र अमृत ने पूरा किया।


त्रिभाषा सूत्र (Three-language formula) भारत में भाषा-शिक्षण से सम्बन्धित नीति है जो भारत सरकार द्वारा राज्यों से विचार-विमर्श करके बनायी गयी है। यह सूत्र (नीति) सन् १९६८ में स्वीकार किया गया।

परिचय

भारतीय संविधान की धारा 343, धारा 348 (2) तथा 351 का सारांश यह है कि देवनागरी लिपि में लिखी और मूलत: संस्कृत से अपनी पारिभाषिक शब्दावली को लेने वाली हिन्दी भारतीय संघ की राजभाषा है। इसमें रोमन अंकों का व्यवहार होगा।
राष्ट्रीय भाषाओं में यह मौलिक सिद्धांत मान्य है कि सभी भाषाएं राष्ट्रीय हैं। इसमें उल्लिखित भाषाएं-अहोमिया, बांग्ला, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, तमिल, तेलुगू, सिंधी, उर्दू, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली, बोडो, संथाली, मैथिली, डोगरी आदि 22 भाषाएं हैं।
त्रिभाषा सूत्र संविधान में नहीं है। सन् 1956 में अखिल भारतीय शिक्षा परिषद् ने इसे मूल रूप में अपनी संस्तुति के रूप में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में रखा था और मुख्यमंत्रियों ने इसका अनुमोदन भी कर दिया था। 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसका समर्थन किया गया था और सन् 1968 में ही पुन: अनुमोदित कर दिया गया था। सन् 1992 में संसद ने इसके कार्यान्वयन की संस्तुति कर दी थी।
यह संस्तुति राज्यों के लिए बाध्यता मूलक नहीं थी क्योंकि शिक्षा राज्यों का विषय है। सन् 2000 में यह देखा गया कि कुछ राज्यों में हिन्दी और अंग्रेजी के अतिरिक्त इच्छानुसार संस्कृत, अरबी, फ्रेंच, तथा पोर्चुगीज भी पढ़ाई जाती हैं। त्रिभाषा सूत्र में 1-शास्त्रीय भाषाएं जैसे संस्कृत, अरबी, फारसी। 2-राष्ट्रीय भाषाएं 3-आधुनिक यूरोपीय भाषाएं हैं। इन तीनों श्रेणियों में किन्हीं तीन भाषाओं को पढ़ाने का प्रस्ताव है। संस्तुति यह भी है कि हिन्दीभाषी राज्यों में दक्षिण की कोई भाषा पढ़ाई जानी चाहिए।

Wednesday, 12 August 2015

                                                   शिक्षण महासूत्र 
       
  1.  सरल से कठिन  की ओर  
  2. स्थूल से सूक्ष्म की ओर 
  3. विशेष से समान्य की ओर 
  4. अनिश्चित से निश्चित के ओर 
  5. ज्ञात से अज्ञात की ओर
  6. पूर्ण से अंश की ओर
  7. विश्लेषण से  संश्लेषण की ओर