Thursday, 8 December 2016

अंतरजाल

                         अंतरजाल


अंतरजाल
अंतरजाल (इंटरनेट), एक दूसरे से जुड़े संगणकों का एक विशाल विश्व-व्यापी नेटवर्क या जाल है। इसमे कई संगठनो, विश्वविद्यालयो, आदि के सरकारी और निजी संगणक जुडे हुए है। अंतरजाल से जुडे हुए संगणक आपस मे अंतरजाल नियमावली (Internet Protocol) के जरिए सूचना का आदान-प्रदान करते है। अंतरजाल के जरिए मिलने वाली सूचना और सेवाओ मे अंतरजाल पृष्ठईमेल और बातचीत सेवा प्रमुख है। इनके साथ-साथ चलचित्रसंगीतविडियो के इलेक्ट्रनिक स्वरुप का आदान-प्रदान भी अंतरजाल के जरिए होता है।

संक्षिप्त इतिहास[संपादित करें]

  • 1969 इंटरनेट अमेरिकी रक्षा विभाग के द्वारा UCLA के तथा स्टैनफोर्ड अनुसंधान संस्थान कंप्यूटर्स का नेटवर्किंग करके इंटरनेट की संरचना की गई।
  • 1979' ब्रिटिश डाकघर पहला अंतरराष्ट्रीय कंप्यूटर नेटवर्क बना कर नये प्रौद्योगिकी का उपयोग करना आरम्भ किया।
  • 1980 बिल गेट्स का आईबीएम के कंप्यूटर्स पर एक माइक्रोसॉफ्ट ऑपरेटिंग सिस्टम लगाने के लिए सौदा हुआ।
  • 1984 एप्पल ने पहली बार फ़ाइलों और फ़ोल्डरों, ड्रॉप डाउन मेनू, माउस, ग्राफिक्स का प्रयोग आदि से युक्त "आधुनिक सफल कम्प्यूटर" लांच किया।
  • 1989 टिम बेर्नर ली ने इंटरनेट पर संचार को सरल बनाने के लिए ब्राउज़रों, पन्नों और लिंक का उपयोग कर के वर्ल्ड वाइड वेब बनाया।
  • 1996 गूगल ने स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में एक अनुसंधान परियोजना शुरू किया जो कि दो साल बाद औपचारिक रूप से काम करने लगा।
  • 2009 डॉ स्टीफन वोल्फरैम ने "वोल्फरैम अल्फा" लांच किया।

भारत में इंटरनेट[संपादित करें]

भारत में अंतरजाल 80 के दशक मे आया, जब एर्नेट (Educational & Research Network) को सरकार, इलेक्ट्रानिक्स विभाग और संयुक्त राष्ट्र उन्नति कार्यक्रम (UNDP) की ओर से प्रोत्साहन मिला। सामान्य उपयोग के लिये जाल 15 अगस्त 1995 से उपलब्ध हुआ, जब विदेश सचांर निगम लिमिटेड (VSNL) ने गेटवे सर्विस शुरू की। भारत मे इंटरनेट यूजर्स की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। यहां 1.32 बिलियन लोगों तक इंटरनेट की पहुंच हो चुकी है, जो कि कुल जनसंख्य का करीब 34.8 %[1] फीसदी है। दुनिया के सभी इंटरनेट यूजर्स देश में भारत कर हिस्सा 13.5 % फीसदी है। साथ ही इंटरनेट का यूज व्यक्तिगत जरूरतों जैसे बैंकिंग, ट्रेन इंफॉर्मेशन-रिजर्वेशन और अन्य सेवाओं के लिए भी होता है। आज इन्टरनेट की पहुँच लगभग सभी गाँव एवम कस्बो और दूज दराज के इलाको तक फ़ैल चुकी है l आज लगभग सभी जगहों पर इसका उपयोग हो रहा है l और वो दिन दूर नहीं जब भारत दुनिया में इन्टरनेट के उपयोग के मामले में सबसे आगे हो l और 2015 से सरकार भी पूरी तरह से ऑनलाइन होने के तयारी में लग गई है l

Wednesday, 14 September 2016

पुस्तकालय


आधुनिक शैली का एक पुस्तकालय
पुस्तकालय वह स्थान है जहाँ विविध प्रकार के ज्ञान, सूचनाओं, स्रोतों, सेवाओं आदि का संग्रह रहता है। पुस्तकालय शब्द अंग्रेजी के लाइब्रेरी शब्द का हिंदी रूपांतर है। लाइबेरी शब्द की उत्पत्ति लेतिन शब्द ' लाइवर ' से हुई है, जिसका अर्थ है पुस्तक। पुस्तकालय का इतिहास लेखन प्रणाली पुस्तकों और दस्तावेज के स्वरूप को संरक्षित रखने की पद्धतियों और प्रणालियों से जुड़ा है।
पुस्तकालय यह शब्द दो शब्दों से मिल। चीन के राष्ट्रीय पुस्तकालय में लगभग पाँच करोड़ पुस्तकें हैं और यहाँ के विश्वविद्यालय में भी विशाल पुस्तकालय हैं। इंपीरियल कैबिनो लाइब्रेरी के राष्ट्रीय पुस्तकालय की स्थापना 1881 ई. में हुई थी। इसके अतिरिक्त जापान में अनेक विशाल पुस्तकालय हैं।
1713 ई. में अमरीका के फिलाडेलफिया नगर में सबसे पहले चंदे से चलनेवाले एक सार्वजनिक पुस्तकालय की स्थापना हुई। लाइब्रेरी ऑव कांग्रेस अमरीका का सबसे बड़ा पुस्तकालय है। इसकी स्थापना वाशिंगटन में सन्‌ 1800 में हुई थी। इसमें ग्रंथों की संख्या साढ़े तीन करोड़ है। पुस्तकालय में लगभग 2,400 कर्मचारी काम करते हैं। समय समय पर अनेक पुस्तकों का प्रकाशन भी यह पुस्तकालय करता है और एक साप्ताहिक पत्र भी यहाँ से निकलता है।
अमरीकन पुस्तकालय संघ की स्थापना 1876 में हुई थी और इसकी स्थापना के पश्चात्‌ पुस्तकालयों, मुख्यत: सार्वजनिक पुस्तकालयों, का विकास अमरीका में तीव्र गति से होने लगा। सार्वजनिक पुस्तकालय कानून सन्‌ 1849 में पास हुआ था और शायद न्यू हैंपशायर अमरीका का पहला राज्य था जिसने इस कानून को सबसे पहले कार्यान्वित किया। अमरीका के प्रत्येक राज्य में एक राजकीय पुस्तकालय है।
सन्‌ 1885 में न्यूयार्क नगर में एक बालपुस्तकालय स्थापित हुआ। धीरे-धीरे प्रत्येक सार्वजनिक पुस्तकालय में बालविभागों का गठन किया गया। स्कूल पुस्तकालयों का विकास भी अमरीका में 20वीं शताब्दी में ही प्रारंभ हुआ। पुस्तकों के अतिरिक्त ज्ञानवर्धक फिल्में, ग्रामोफोन रेकार्ड एवं नवीनतम आधुनिक सामग्री यहाँ विद्यार्थियों के उपयोग के लिए रहती है।
आस्ट्रेलिया के प्रसिद्ध शहर कैनबरा में राष्ट्रसंघ पुस्तकालय की स्थापना 1927 में हुई। वास्तव में पुस्तकालय आंदोलन की दिशा में यह क्रांतिकारी अध्याय था। मेलबोर्न में विक्टोरिया पुस्तकालय की स्थापना 1853 में हुई थी। यह आस्ट्रे��कर बना है- पुस्तक + आलय। जिसमें लेखक के भाव संगृहीत हों, उसे पुस्तक कहा जाता है और आलय स्थान या घर को कहते हैं। इस प्रकार पुस्तकालय उस स्थान को कहते हैं जहाँ पर अध्ययन सामग्री (पुस्तकें, फिल्म, पत्रपत्रिकाएँ, मानचित्र, हस्तलिखित ग्रंथ, ग्रामोफोन रेकार्ड एव अन्य पठनीय सामग्री) संगृहीत रहती है और इस सामग्री की सुरक्षा की जाती है। पुस्तकों से भरी अलमारी अथवा पुस्तक विक्रेता के पास पुस्तकों का संग्रह पुस्तकालय नहीं कहलाता क्योंकि वहाँ पर पुस्तकें व्यावसायिक दृष्टि से रखी जाती हैं।

प्रकार

विभिन्न पुस्तकालयों का अपना क्षेत्र और उद्देश्य अलग अलग होता है और वह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनुकूल रूप धारण करते हैं। इसी के आधार पर इसके अनेक भेद हो जाते हैं जैसे- राष्ट्रीय पुस्तकालय, सार्वजनिक पुस्तकालय, व्यावसायिक पुस्तकालय, सरकारी पुस्तकालय, चिकित्सा पुस्तकालय और विश्वविद्यालय तथा शिक्षण संस्थाओं के पुस्तकालय आदि।

राष्ट्रीय पुस्तकालय

जिस पुस्तकालय का उद्देश्य संपूर्ण राष्ट्र की सेवा करना होता है उसे राष्ट्रीय पुस्तकालय कहते हैं। वहाँ पर हर प्रकार के पाठकों के आवश्यकतानुसार पठनसामग्री का संकलन किया जाता है। अर्नोल्ड इस्डैल के मतानुसार 'राष्ट्रीय पुस्तकालय का प्रमुख कर्तव्य संपूर्ण राष्ट्र के प्रगतिशील विद्यार्थियों को इतिहास और साहित्य की सामग्री सुलभ करना, अध्यापकों, लेखकों एवं शिक्षितों को शिक्षित करना है'। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय पुस्तकालय के निम्नलिखित कर्तव्य होते हैं:
1- राष्ट्रीय ग्रंथसूची के प्रकाशित कराने का दायित्व।
2- इस पुस्तकालय से संबद्ध पुस्तकालयों की एक संघीय सूची का संपदान करना।
3- पुस्तकालयों में संदर्भ सेवा की पूर्ण व्यवस्था करना और पुस्तकों कें अंतर्राष्ट्रीय आदान-प्रदान की सुविधा दिलाना।
4- अंतर्राष्ट्रीय ग्रंथसूची के कार्य के साथ समन्वय स्थापित करना और इय संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी रखना।
5- संपूर्ण राष्ट्र में स्थापित महत्वपूर्ण संदर्भकेंद्रों की सूची तैयार करना।
प्रसिद्ध भारतीय विद्वान्‌ डाक्टर रंगनाथन के अनुसार देश की सांस्कृतिक अध्ययनसामग्री की सुरक्षा राष्ट्रीय पुस्तकालय का मुख्य कार्य है। साथ ही देश के प्रत्येक नागरिक को ज्ञानार्जन की समान सुविधा प्रदान करना और जनता की शिक्षा में सहायता देने के विविध क्रियाकलापों द्वारा ऐसी भावना भरना कि लोग देश के प्राकृतिक साधनों का उपयोग कर सकें। यह निश्चय है कि यदि देश के प्रत्येक व्यक्ति का मस्तिष्क सृजनशील नहीं होगा तो राष्ट्र का सर्वांगीण विकास तीव्र गति से नहीं हो सकेगा।
कापीराइट की सुविधा से राष्ट्रीय पुस्तकालयों के विकास में वृद्धि हुई है। वास्तव में पुस्तकालय आंदोलन के इतिहास में यह क्रांतिकारी कदम है। ब्रिटेन के राष्ट्रीय पुस्तकालय, ब्रिटिश म्यूजियम को 1709 में यह सुविधा प्रदान की गई। इसी प्रकार फ्रांस बिब्लियोथेक नैशनल पेरिस को 1556 और बर्लिन लाइब्रेरी को 1699 ई. में एवं स्विस नैशनल लाइब्रेरी को 1950 ई. में वहाँ के प्रकाशन नि:शुल्क प्राप्त होने लगे। कापीराइट की यह महत्वपूर्ण सुविधा भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय को सन्‌ 1954 ई. में प्रदान की गई। डिलीवरी आंव बुक्स सन्‌ 1954 के कानून के द्वारा प्रत्येक प्रकाशन की कुछ प्रतियाँ राष्ट्रीय पुस्तकालय को भेजना प्रकाशकों के लिए कानून द्वारा अनिवार्य कर दिया गया है।

सार्वजनिक पुस्तकालय

आधुनिक सार्वजनिक पुस्तकालयों का विकास वास्तव में प्रजातंत्र की महान्‌ देन है। शिक्षा का प्रसारण एवं जनसामान्य को सुशिक्षित करना प्रत्येक राष्ट्र का कर्तव्य है। जो लोग स्कूलों या कालेजों में नहीं पढ़ते, जो साधारण पढ़े लिखे हैं, अपना निजी व्यवसाय करते हैं अथवा जिनकी पढ़ने की अभिलाषा है और पुस्तकें नहीं खरीद सकते तथा अपनी रुचि का साहित्य पढ़ना चाहते हैं, ऐसे वर्गों की रुचि को ध्यान में रखकर जनसाधारण की पुस्तकों की माँग सार्वजनिक पुस्तकालय ही पूरी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्रदर्शनी, वादविवाद, शिक्षाप्रद चलचित्र प्रदर्शन, महत्वपूर्ण विषयों पर भाषण आदि का भी प्रबंध सार्वजनिक पुस्तकालय करते हैं। इस दिशा में यूनैसको जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन ने बड़ा महत्वपूर्ण योगदान किया है। प्रत्येक प्रगतिशील देश में जन पुस्तकालय निरंतर प्रगति कर रहे हैं और साक्षरता का प्रसार कर रहे हैं। वास्तव में लोक पुस्तकालय जनता के विश्वविद्यालय हैं, जो बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के उपयोग के लिए खुले रहते है।

अनुसंधान पुस्तकालय

उस संस्था को कहते हैं जो ऐसे लोगों की सहायता एवं मार्गदर्शन करती है जो ज्ञान की सीमाओं को विकसित करने में कार्यरत हैं। ज्ञान की विभिन्न शाखाएँ हैं और उनकी पूर्ति विभिन्न प्रकार के संग्रहों से ही संभव हो सकती है, जैसे कृषि से संबंधित किसी विषय पर अनुसंधानात्मक लेख लिखने के लिए कृषि विश्वविद्यालय या कृषिकार्यों से संबंधित किसी संस्था का ही पुस्तकालय अधिक उपयोगी सिद्ध होगा। ऐसे पुस्तकालयों की कार्यपद्धति अन्य पुस्तकालयों से भिन्न होती है। यहाँ कार्य करनेवाले कार्मिकों का अत्यंत दक्ष एवं अपने विषय का पंडित होना अनिवार्य है, नहीं तो अनुसंधानकर्ताओं को ठीक मार्गदर्शन उपलब्ध न हो सकेगा। संग्रह की दृष्टि से भी यहाँ पर बहुत सतर्कतापूर्वक सामग्री क चुनाव करना चाहिए। संदर्भ संबंधी प्रश्नों का तत्काल उत्तर देने के लिए पुस्तकालय में विशेष उपादानों का होना और उनका रखरखाव भी ऐसा चाहिए कि अल्प समय में ही आवश्यक जानकारी सुलभ हो से। विभिन्न प्रकार की रिपोर्टे और विषय से संबंधि मुख्य-मुख्य पत्रिकाएँ, ग्रंथसूचियाँ, विश्वकोश, कोश और पत्रिकाओं की फाइलें संगृहीत की जानी चाहिए।

व्यावसायिक पुस्तकालय

इन पुस्तकालयों का उद्देश्य किसी विशेष व्यावसायिक संस्था अथवा वहाँ के कर्मचारियों की सेवा करना होता है। इनके आवश्यकतानुसार विशेष पठनसामग्री का इन पुस्तकालयों में संग्रह किया जाता है, जैसे व्यवसाय से संबंधित डायरेक्टरोज, व्यावसायिक पत्रिकाएँ, समयसारणियाँ, महत्वपूर्ण सरकारी प्रकाशन, मानचित्र, व्यवसाय से संबंधित पाठ्य एवं संदर्भग्रंथ, विधि साहित्य इत्यादि।

सरकारी पुस्तकालय

वैसे तो सरकार अनेक पुस्तकालयों को वित्तीय सहायता देती है, परंतु जिन पुस्तकालयों का संपूर्ण व्यय सरकार वहन करती है उन्हें सरकारी पुस्तकालय कहते हैं, जैसे राष्ट्रीय पुस्तकालय, विभागतीय पुस्तकालय, विभिन्न मंत्रालयों के पुस्तकालय, प्रांतीय पुस्तकालय। संसद और विधानभवनों के पुस्तकालय भी सरकारी पुस्तकालय की श्रेणी में आते हैं।

चिकित्सा पुस्तकालय

यह पुस्तकालय किसी चिकित्सा संबंधी संस्था, विद्यालय, अनुसंधान केंद्र अथवा चिकित्सालय से संबद्ध होते हैं। चिकित्सा संबंधी पुस्तकों का संग्रह इनमें रहता है और इनका रूप सार्वजनिक न होकर विशेष वर्ग की सेवा मात्र तक ही सीमित होता है।

शिक्षण संस्थाओं के पुस्तकालय

शिक्षण संस्थाओं के पुस्तकालयों को इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है, जैसे विश्वविद्यालय पुस्तकालय, विद्यालय पुस्तकालय, माध्यमिक शाला पुस्तकालय, बेसिक शाला पुस्तकालय एवं प्रयोगशालाओं, अनुसंधान संस्थाओं और खोज संस्थाओं के निजी पुस्तकालय आदि। हर विश्वविद्यालय के साथ एक विशाल पुस्तकालय का होना प्राय: अनिवार्य ही है। बेसिक शालाओं एवं जूनियर हाई स्कूलों में तो अभी पुस्तकालयों का विकास नहीं हुआ है, परंतु माध्यमिक शालाओं एवं विद्यालयों के पुस्तकालयों का सर्वांगीण विकास हो रहा है।
इसके अतिरिक्त पुस्तकालयों के और भी अनेक भेद हैं जैसे ध्वनि पुस्तकालय, जिसमें ग्रामोफोन रेकार्डों और फिल्मों आदि का संग्रह रहता है, कानून पुस्तकालय, समाचारपत्र पुस्तकालय, जेल पुस्तकालय, अन्धों का पुस्तकालय, संगीत पुस्तकालय, बाल पुस्तकालय एवं सचल पुस्तकालय आदि।

सेना पुस्तकालय

ये पुस्तकालय विशिष्ट प्रकार के होते हैं और संग्रह की दृष्टि से तो इनका रूप प्राय: अन्य पुस्तकालयों से भिन्न होता है। प्रथम विश्वयुद्ध के समय ऐसे पुस्तकालयों की आवश्यकता की ओर ध्यान दिया गया था और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय तो सेना के अधिकारियों को पठन-पाठन की सुविधा देने हेतु मित्र-राष्ट्रों ने अनेकानेक पुस्तकालय स्थापित किए। अकेले अमरीका में नभ सेना के लिए 1600 पुस्तकालय हैं जिनमें नभ सेना के उपयोग के लिए नई से नई सामग्री का संग्रह किया जाता है। ये पुस्तकालय बहुत से जलपोतों और सैनिक छावनियों के साथ स्थापित किए गए है। इसी प्रकार वायुसेना और स्थल सेना के भी अनेक पुस्तकालय विश्व के अनेक देशों में हैं। अमेरिकन पेंटागेन में सेना का एक विशाल पुस्तकालय है। भारत में रक्षा मंत्रालय, सेना प्रधान कार्यालय एवं डिफेंस साइंस ऑर्गनाइज़ेंशन के विशाल पुस्तकालय हैं।

Thursday, 21 July 2016

समावेशी शिक्षा

           मावेशी शिक्षा  एक शिक्षा प्रणाली है।
शिक्षा का समावेशीकरण यह बताता है कि विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक सामान्य छात्र और एक अशक्त या विकलांग छात्र को समान शिक्षा प्राप्ति के अवसर मिलने चाहिए। इसमें एक सामान्य छात्र एक अशक्त या विकलांग छात्र के साथ विद्यालय में अधिकतर समय बिताता है। पहले समावेशी शिक्षा की परिकल्पना सिर्फ विशेष छात्रों के लिए की गई थी लेकिन आधुनिक काल में हर शिक्षक को इस सिद्धांत को विस्तृत दृष्टिकोण में अपनी कक्षा में व्यवहार में लाना चाहिए।
समावेशी शिक्षा या एकीकरण के सिद्धांत की ऐतिहासक जड़ें कनाडा और अमेरिका से जुड़ीं हैं। प्राचीन शिक्षा पद्धति की जगह नई शिक्षा नीति का प्रयोग आधुनिक समय में होने लगा है। समावेशी शिक्षा विशेष विद्यालय या कक्षा को स्वीकार नहीं करता। अशक्त बच्चों को सामान्य बच्चों से अलग करना अब मान्य नहीं है। विकलांग बच्चों को भी सामान्य बच्चों की तरह ही शैक्षिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार है।

पूर्णत: समावेशी विद्यालय तथा सामान्य/विशेष शैक्षिक नीतियाँ

छात्रों तथा शिक्षा नीतियों का वर्गीकरण

वैकल्पिक समावेशी कार्यक्रम, विद्यालयी प्रक्रिया और सामाजिक विकास

कानूनी मुद्दे –शैक्षिक कानून और विकलांगता कानून

संसार में समावेशी शिक्षा का मूल्यांकन

समावेशी शिक्षा और आवश्यक संसाधन के सिद्धांत

समावेशी कक्षाओं की सामान्य प्रथाएँ

साधारणतः छात्र एक कक्षा में अपनी आयु के हिसाब से रखे जाते हैं चाहे उनका अकादमिक स्तर ऊँचा या नीचा ही क्यों न हो। शिक्षक सामान्य और विकलांग सभी बच्चों से एक जैसा बर्ताव करते हैं। अशक्त बच्चों की मित्रता अक्सर सामान्य बच्चों के साथ करवाई जाती है ताकि ऐसे ही समूह समुदाय बनता है। यह दिखाया जाता है कि एक समूह दूसरे समूह से श्रेष्ठ नहीं है। ऐसे बर्ताव से सहयोग की भावना बढती है।
शिक्षक कक्षा में सहयोग की भावना बढ़ाने के लिए कुछ तरीको क उपयोग करते हैं:
  • समुदाय भावना को बढ़ाने के लिए खेलों का आयोजन
  • विद्यार्थियों को समस्या के समाधान में शामिल करना
  • किताबों और गीतों का आदान-प्रदान
  • सम्बंधित विचारों का कक्षा में आदान-प्रदान
  • छात्रों में समुदाय की भावना बढ़ाने के लिए कार्यक्रम तैयार करना
  • छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देना
  • विभिन्न क्रियाकलापों के लिए छात्रों का दल बनाना
  • प्रिय वातावरण का निर्माण करना
  • बच्चों के लिए लक्ष्य-निर्धारण
  • अभिभावकों का सहयोग लेना
  • विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा लेना

दल शिक्षण पद्धति द्वारा सामान्यतः व्यवहार में आने वाली समावेशी प्रथाएँ

एक शिक्षा, एक सहयोग—इस मॉडल में एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा प्रशिक्षित शिक्षक विशेष छात्र की आवश्यकताओं को और कक्षा को सुव्यवस्थित रखने में सहयोग करता है।
  • एक शिक्षा एक निरीक्षण – एक शिक्षा देता है दूसरा छात्रों का निरीक्षण करता है।
  • स्थिर और घूर्णन शिक्षा — इसमें कक्षा को अनेक भागों में बाँटा जाता है। मुख्य शिक्षक शिक्षण कार्य करता है दूसरा विशेष शिक्षक दूसरे दलों पर इसी की जाँच करता है।
  • समान्तर शिक्षा – इसमें आधी कक्षा को मुख्य शिक्षक तथा आधी को विशिष्ट शिक्षा प्राप्त शिक्षक शिक्षा देता है। दोनों समूहों को एक जैसा पाठ पढ़ाया जाता है।
  • वैकल्पिक शिक्षा – मुख्य शिक्षक अधिक छात्रों को पाठ पढ़ाता है जबकि विशिष्ट शिक्षक छोटे समूह को दूसरा पाठ पढ़ाता है।
  • समूह शिक्षा – यह पारंपरिक शिक्षा पद्धति है। दोनों शिक्षक योजना बनाकर शिक्षा देते हैं। यह काफ़ी सफल शिक्षण पद्धति है।

Thursday, 10 March 2016

भाषा शिक्षण 


‘भाषा शिक्षण’ के तीन आयाम हैं –
1. मातृभाषा के रूप में शिक्षण
2. द्वितीय अथवा अन्य भाषा के रूप में शिक्षण
3. विदेशी भाषा के रूप में शिक्षण
मातृ भाषाशिक्षण के समय शिक्षार्थी अपनी भाषा का आधारभूत ज्ञान प्राप्त कर चुका होता है जबकि द्वितीय एवं विदेशी भाषाशिक्षण के अधिगम में शिक्षार्थी की मातृभाषा की ध्वनि एवं व्याकरणिक व्यवस्थाओं की सीखी हुई आदतें व्याघात पैदा करती हैं। मातृभाषा की अर्जित भाषिक आदतें भाषा-अधिगम में बाधा पहुँचाती हैं। अन्य भाषाशिक्षण के दो भेद माने जा सकते हैं - 1. द्वितीय भाषा 2. विदेशी भाषा। इसे अन्य भाषाशिक्षण के रूप में जब हिन्दी शिक्षण पर विचार करते हैं तो द्वितीय भाषा तथा विदेशी भाषाशिक्षण का मुख्य अन्तर यह है कि भारत के हिन्दीतर भाषियों तथा हिन्दी भाषियों के बीच सामाजिक सम्पर्क होते रहने के कारण उनमें परस्पर सांस्कृतिक एवं भाषिक एकता के सूत्र विद्यमान हैं जबकि विदेशी भाषियों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अलग होने के कारण उनको हिन्दी भाषा के सामाजिक एवं सांस्कृतिक संदर्भों को भी सिखाने की जरूरत होती है। शिक्षार्थी की मातृभाषा की अपेक्षा से द्वितीय भाषाशिक्षण और विदेशी भाषाशिक्षण दोनों ही इतर अथवा अन्य हैं। यह भी कहा जा सकता है कि द्वितीय एवं विदेशी भाषा दोनों ही मातृभाषा की तुलना में अन्यभाषा हैं।

1.मातृभाषा के रूप में शिक्षण

एक बच्चे का लालन-पोषण जिस परिवार में होता है, वह उस परिवार के सदस्यों की भाषा को सहज रूप में सीख लेता है। सामान्य रूप से पाँच वर्ष की आयु का बालक अपनी माँ, परिवार के सदस्यों, मित्रों तथा मिलन-जुलने वालों के बीच रहकर अनौपचारिक रूप से मातृभाषा को बोलना सीख लेता है। जब वह किसी विद्यालय में पढ़ने के लिए प्रवेश लेता है तो वहाँ उसको उसकी मातृभाषा के भाषा-क्षेत्र की मानक भाषा का उच्चारण, पढ़ना और लिखना सिखाया जाता है।
यह सर्वमान्य है कि प्रत्येक व्यक्ति की भाषिक दक्षता विदेशी भाषा की अपेक्षा मातृभाषा में अधिक होती है। इसी कारण मातृभाषा के द्वारा किसी विषय को अधिक आसानी से समझा जा सकता है और उसके द्वारा विचार की अभिव्यक्ति अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से की जा सकती है। सम्प्रति, मैं हिन्दी माध्यम से ज्ञान विज्ञान के विभिन्न विषयों का विश्वविद्यालयीन स्तर पर शिक्षा प्राप्त करने वाले शिक्षार्थियों की भाषिक दक्षताओं की अभिवृद्धि की समस्याओं और उनके समाधान के सम्बंध में निवेदित करना चाहता हूँ। इस तथ्य पर आम सहमति है कि विश्वविद्यालयीन स्तर पर ज्ञानविज्ञान की अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा का विशिष्ट रूप होता है।इसी कारण शिक्षा नीति इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे छात्र अपनी मातृभाषा के विशिष्ट रूप को सीख सकें तथा उसमें अपेक्षित सक्षम हो सकें।
देश के शिक्षाशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि हाईस्कूल अथवा हायर सेकेण्डरी परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जो छात्र महाविद्यालयों में प्रवेश लेते हैं, उनमें उतनी भाषिक दक्षता नहीं होती जितनी महाविद्यालयीन अध्ययन के लिये अपेक्षित है। इसकी पुष्टि हमारे द्वारा सन् 1976 में जबलपुर विश्वविद्यालय के 4 महाविद्यालयों के विभिन्न संकायों एवं विषयो के प्रथम वर्ष के 400 छात्रों के परीक्षण द्वारा हुई।
महाविद्यालयों के हिन्दी माध्यम से अध्ययन करने वाले प्रथम वर्ष के छात्रों की अपेक्षित भाषायी-दक्षताओं का विकास करने के उद्देश्य से जबलपुर के विश्वविद्यालय ने भारतीय भाषा-संस्थान, भारत सरकार, मैसूर के सहयोग से अगस्त 1976 में ‘हिन्दी ब्रिज कोर्स परियोजना’ के क्रियान्वयन का निश्चय किया। इस योजना के अन्तर्गत बी0ए0, बी0एस-सी0 एवं बी0 कॉम0 प्रथम वर्ष के हिन्दी माध्यम से अध्ययन करने वाले छात्रों की भाषिक दक्षताओं के विकास हेतु 200 घण्टों की पाठ्य सामग्री का श्रवण एवं टिप्पण (नोट्स) निर्माण बोधन, पठन बोधन, निर्देशित निबन्ध लेखन, सार लेखन (हिन्दी से हिन्दी एवं अंग्रेजी से हिन्दी) सम्बन्धी दक्षताओं के अनुरूप वर्गीकरण के अलग-अलग पुस्तिकाओं का निर्माण किया गया तथा उनको प्रकाशित भी किया गया। इस परियोजना के अन्तर्गत प्रकाशित पुस्तकें निम्न हैं –
1. हिन्दी ब्रिज कोर्स-पूर्व परीक्षणः (Hindi Bridge Course-Pre Test) (1978)
2. हिन्दी ब्रिज कोर्स-पश्चात् परीक्षणः(Hindi Bridge Course-Post Test) (1978)
3. हिन्दी ब्रिज कोर्स-पूर्व एवं पश्चात् परीक्षण: (Hindi Bridge Course-Pre and Post Tests) (1978)
4. हिन्दी ब्रिज कोर्स-परीक्षण (अध्यापक पुस्तिका): (Hindi Bridge Course-Tests : Teacher's Primer) (1978)
5. हिन्दी ब्रिज कोर्स-श्रवणबोधनः (Hindi Bridge Course-Listening Comprehension) (1978)
6. हिन्दी ब्रिज कोर्स-श्रवण एवं टिप्पण निर्माण बोधन (क): (Hindi Bridge Course-Listening and Note taking Competence (A) (1978)
7. हिन्दी ब्रज कोर्स-श्रवण एवं टिप्पण निर्माण बोधन (ख): (Hindi Bridge Course-Listening and Note taking Competence (B) (1978)
8. हिन्दी ब्रज कोर्स-पठन बोधन: (Hindi Bridge Course-Reading Comprehension ) (1978)
9. हिन्दी ब्रिज कोर्स-निर्देशित निबंध-लेखन: (Hindi Bridge Course-Guided Composition) (1978)
10. हिन्दी ब्रिज कोर्स-सार लेखन (अंग्रेजी से हिन्दी):(Hindi Bridge CourseEpitomized Writing (from English to Hindi)(1978)
11. हिन्दी ब्रिज कोर्स-सार लेखन (हिन्दी से अंग्रेजी ): (Hindi Bridge Course – Epitomized Writing (from Hindi to English) ) (1978)
12. हिन्दी ब्रिज कोर्स-अध्यापक निर्देश पुस्तिकाः (Hindi Bridge Course – Teachers Guide Book) (1978)
इन पुस्तकों में जिन विषयों से सामग्री का चयन किया गया है उनमें समाजशस्त्र, भौतिकशास्त्र, जीवविज्ञान एवं वनस्पतिविज्ञान प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त सामान्य ज्ञान की पुस्तकों, पत्रिकाओं एवं रेडियों वार्ताओं से भी सामग्री संकलित की गई है। 400 गद्यांशों में से विविध विशेषज्ञों के परामर्श से अन्ततः 200 गद्यांशों का चयन करने के पश्चात् उन्हें अलग-अलग भाषिक दक्षताओं में वितरित करने के बाद प्रत्येक दक्षता की सामग्री का श्रेणीकरण तथा प्रत्येक गद्यांश का आलोचनात्मक परीक्षण कर उसे अर्थपूर्ण इकाइयों में विभाजित किया गया है।
शिक्षक पुस्तिका में अध्ययन हेतु व्यापक एवं निश्चित शैक्षणिक निर्देश प्रदान किए गए हैं तथा ‘छात्र पुस्तिकाओं’ में अलग-अलग दक्षताओं से सम्बंधित उपयुक्त निर्देश तथा दक्षता-विकास एवं मूल्य निर्धारिक प्रश्नों का निर्माण किया गया है। निर्मित सामग्री का नियंत्रित एवं प्रयोगिक परिस्थितियों में प्रयोग करके सामग्री की सार्थकता के परीक्षण हेतु ‘पूर्व परीक्षण’ एवं ‘पश्चात् परीक्षण’ का भी निर्माण ‘परीक्षणों’ के निष्कर्षों को ध्यान में रखकर किया गया है।
मातृभाषा के माध्यम से विश्वविद्यालयीन शिक्षा प्राप्त करने वाले शिक्षार्थियों की भाषा दक्षता की अभिवृद्धि एवं विकास के लिए इसी प्रकार की सामग्री का निर्माण किया जाना चाहिए तथा उसके आधार पर भाषा शिक्षण कराया जाना चाहिए।

अन्य भाषा के रूप में शिक्षण कराने वाले शिक्षकः

अन्य भाषा के रूप में शिक्षण (द्वितीय भाषा के रूप में शिक्षण तथा विदेशी भाषा के रूप में शिक्षण) कराने वाले शिक्षकों में विशेष योग्यताओं एवं गुणों का होना आवश्यक हैः
1.उनको लक्ष्य भाषा के ध्वनिमिक अथवा स्वनिमिक तथा व्यवस्थापरक अभिलक्षणों, प्रयोगों, विशिष्ट शब्दावली तथा भाषिक संस्कारों का सूक्ष्म ज्ञान होना चाहिए।
2.उनको प्रशिक्षणार्थियों की भाषाओं की संरचनाओं का ज्ञान होना चाहिए तथा उनको लक्ष्य भाषा एवं शिक्षार्थी / शिक्षार्थियों की मातृ-भाषा/ मातृ-भाषाओं के व्यतिरेकात्मक विश्लेषण से परिचित होना चाहिए।
3.उनको ध्वनि विज्ञान, ध्वनिम अथवा स्वनिमविज्ञान, एककालिक अथवा संकालिक भाषाविज्ञान एवं संरचनात्मक भाषाविज्ञान के सिद्धांतों से परिचित होना चाहिए।
4.उनको अन्य भाषा शिक्षण (द्वितीय एवं विदेशी) की नवीनतम पद्धतियों एवं प्रविधियों का ज्ञान होना चाहिए।
5. उनमें उन पद्धतियों एवं प्रविधियों के आधार पर लक्ष्य भाषा के शिक्षण की व्यावहारिक योग्यता होनी चाहिए।
6.उनको शिक्षार्थी/ शिक्षार्थियों की योग्यता आयु एवं भाषा-अधिगम के उद्देश्यों से परिचित होना चाहिए तथा उनको तदनुरूप अपनी शिक्षा योजना में परिवर्तन करते रहना चाहिए । हिन्दी भाषा के शिक्षण के संदर्भ में इसको दो उदाहरणों से स्पष्ट किया जा सकता है।
(क) यदि किसी प्रबुद्ध वयस्क शिक्षार्थी का उद्देश्य हिन्दी भाषा की देवनागरी लिपि को सीखना है तो अध्यापक को हिन्दी भाषा के उच्चारित एवं लिखित रूपों के अन्तर की ओर निर्देश करते हुए देवनागरी वर्णो के आकार-प्रकार, वर्णो के उपवर्ण तथा लिखावट में उनको वितरणगत स्थितियाँ स्पष्ट करते हुए उनके लिखने का अभ्यास कराना चाहिए।
(ख) इसी प्रकार यदि शिक्षार्थी का उद्देश्य हिन्दी माध्यम से कार्यालयीन प्रशासनिक कार्य सम्पन करना है तो प्राध्यापक को उसके कार्यालय के प्रशासनिक कार्यो में प्रयुक्त होने वाली प्रशासनिक हिन्दी की विशिष्ट शब्दावली (रजिस्टर्स), प्रमुख वाक्य साँचों आदि का शिक्षण कराना चाहिए।
7. शिक्षार्थी/ शिक्षार्थियों को भाषा अधिगम में जिन समस्याओं एवं व्याघातों का सामना करना पड़ रहा है, उनमें उनको पहचानने की क्षमता तथा उसका समाधान करने की योग्यता होनी चाहिए।
8.सामग्री-निर्माण तथा प्रस्तुतीकरण करते समय उनको सजग रहना चाहिए जिससे शिक्षार्थी/ शिक्षार्थियों में लक्ष्य भाषा को बोलने, लिखने, पढ़ने और समझने की आदत का अधिकाधिक सहज रूप से निर्माण हो सके।
9. उनमें कक्षा में इस प्रकार का वातावरण उत्पन्न करने की क्षमता होनी चाहिए जिससे शिक्षार्थी भाषिक सामग्री का अधिकाधिक रूचि एवं निष्ठा के साथ अभ्यास कर सकें, उसको कक्षा में अन्य शिक्षार्थी/ शिक्षार्थियों से सम्भाषण के समय तथा कक्षा के बाहर दैनिक जीवन के कार्यकलापों में प्रयुक्त कर सके।

लक्ष्य भाषा के किस रूप का प्रशिक्षण

कोई भाषा पढ़ाते समय सर्वप्रथम यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उनको उस भाषा के किस भाषिक रूप का प्रशिक्षण दें। इस सम्बंध में यह उल्लेखनीय है कि यदि शिक्षार्थी का भाषा सीखने का कोई विशिष्ट प्रयोजन नहीं है तो सामान्य रूप से हमें उस भाषा के मानक रूप का अभ्यास कराना चाहिए। मानक से तात्पर्य भाषा के उस रूप से है जिसको उस भाषा के पढ़े-लिखे भाषी मानक मानते हैं। औपचारिक अवसरों पर उस भाषा के उच्च-शिक्षा प्राप्त व्यक्ति इस भाषा-रूप के द्वारा परस्पर सम्भाषण करते है। भाषणों, संगोष्ठियों, परिचर्चाओं आदि में इस भाषा का जो रूप प्रयुक्त होता है।

पाठ्य-सामग्री-निर्माण एवं प्रशिक्षण-बिन्दुः

शिक्षार्थी की मातृभाषा एवं लक्ष्य भाषा के व्यतिरेकी अध्ययन को ध्यान में रखकर पाठ्य-सामग्री का तदनुरूप निर्माण करना चाहिए तथा अध्ययन बिंदुओं को निर्धारित कर वर्गीकृत पाठ्य-सामग्री का प्रशिक्षण एवं अभ्यास कराना चाहिए। उदाहरण के लिए अपनी विशिष्ट भाषिक संरचना एवं व्यवस्था के कारण हिन्दी सीखते समय समस्त हिंदीतर भाषियों को कुछ समान समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
उदाहरणार्थ -
1.संज्ञा शब्दों का लिंग निर्धारण
2.विशेषण का विशेष्य के अनुसार रूपांतरण सम्बंधी विशिष्ट नियम
3.ने परसर्ग की वितरणगत स्थितियाँ
4.सम्बंधकारक ‘का’,‘के’, ‘की’ परसर्गो का प्रयोग
5. कर्ता एवं क्रिया की अन्विति सम्बंधी नियम
6. संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग

एक भाषा-परिवार के भाषा-भाषियों की समान समस्याएँ

हिन्दी भाषाशिक्षण की हिन्दीतर आधुनिक भारतीय आर्य भाषा-भाषियों एवं द्रविड़ भाषा-भाषियों की भिन्न समस्याओं का आकलन किया जाना चाहिए।
उदाहरणार्थ-
हिन्दी के नकारात्मक अव्यय प्रयोगों को सीखने में द्रविड़ भाषा-भाषियों को सापेक्षिक दृष्टि से अधिक समस्या होती है।

Wednesday, 10 February 2016

विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा


समावेशन शब्द का अपने आप में कुछ खास अर्थ नहीं होता है । समावेशन के चारों ओर जो वैचारिक, दार्शनिक, सामाजिक और शैक्षिक ढ़ाँचा होता है वही समावेशन को परिभाषित करता है । समावेशन की प्रक्रिया में बच्चे को न केवल लोकतंत्र की भागीदारी के लिए सक्षम बनाया जा सकता है, बल्कि यह सीखने एवं विश्वास करने के लिए भी सक्षम बनाया जा सकता है कि लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए दूसरों के साथ रिश्ते बनाना, अर्न्तक्रिया करना भी समान रूप से महत्वपूर्ण है ।  
                                                                              (एन.सी. एफ. 2005, पृष्ठ 96)
स्वतंत्रता के बाद शिक्षा प्रणाली की क्या उपलब्धि रही है, यदि हम इस ओर ध्यान दें तो संभवतः हमें कुछ संतोषजनक आंकड़े मिलेंगे। आज भारत की विद्यालय शिक्षा व्यवस्था चीन के पश्चात् विश्व की दूसरी सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था है । जहाँ तकरीबन 10 लाख स्कूलों में 2025 लाख बच्चों को पढ़ाने का काम लगभग 55 लाख शिक्षक कर रहे हैं। 82 प्रतिशत रिहाइशी इलाकों में एक किलोमीटर की परिधि के अन्दर प्राथमिक और 75 प्रतिशत रिहाइशी इलाकों में तीन किलोमीटर के अंदर उच्च प्राथमिक पाठशाला हैं। माध्यमिक स्तर की परीक्षा में भाग लेने वाले बच्चों में कम से कम 50 प्रतिशत बच्चे परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं। इस सबके पश्चात् भी वर्तमान में लाखों बालक शिक्षा की मुख्यधारा से वंचित है । बावजूद इसके आज भी हमारें विद्यालय ऐसे बालकों के लिए साधनहीन नजर आते है जिनकी विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय, शारीरिक , बौद्धिक,  सामाजिक, आर्थिक कारणों के कारण कुछ विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकतायें है ।
वर्तमान में विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों के लिए शिक्षा की दो प्रकार की व्यवस्थाएं है । एक वह जिन्हे हम विशेष विद्यालय कहते है, जो ज्यादातर शहरों मे स्थित आवासीय है ।  जिनका उदेद्श्य केवल एक प्रकार के विशिष्ट बालकों की विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करना होता है । और दूसरा तरीका है कि उन्हे अन्य सभी बालकों के साथ  आस-पड़ोस के सामान्य विद्यालय में भेजा जाये और वही उनकी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने की व्यवस्था कि जायें। यदि बालक इस प्रकार के विद्यालय में जाता है तो वह अपने अन्य भाई बहनों के समान अपने माँ बाप के साथ रह सकता है । दूसरा इस प्रकार के विद्यालयों में  सभी बालक एक दूसरे से मिलजुल कर एक दूसरे से सीख सकते है । इसके अलावा बालक को बाद में अपने आपको दुनिया में समायोजित करने में सहायता मिलती है क्योंकि आखिरकार उसको रहना तो उसको उसी समाज में है जिसका कि वो हिस्सा होता है इसलिए क्यों न बालक को प्रारम्भ से ही उस माहौल में रखा जाये जहाँ उसे विद्यालय की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् रहना है? इसलिए अच्छा है कि आरम्भ से बालक को  मुख्यधारा वाले ऐसे विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा जाये जहाँ अन्य सामान्य बालक भी जाते है । इस अवधारणा के साथ समावेशित शिक्षा व्यवस्था प्रणाली का आरम्भ हुआ । समावेशी शिक्षा से तात्पर्य ऐसी शिक्षा प्रणाली से है जिसमें प्रत्येक बालक को चाहे वो विशिष्ट हो या सामान्य बिना किसी भेदभाव के, एक साथ, एक ही विद्यालय में, सभी आवश्यक तकनीकों व सामग्रियों के साथ, उनकी सीखने सिखाने के जरूरतों को पूरा किया जायें ।
समावेशी शिक्षा के मायने
समावेशित शिक्षा कक्षा में विविधताओं को स्वीकार करने की एक मनोवृत्ति है जिसके अन्तर्गत विविध क्षमताओं वाले बालक सामान्य शिक्षा प्रणाली में एक साथ अध्ययन करते है । समावेशित शिक्षा के  दर्शन के अन्तर्गत प्रत्येक बालक अद्वितीय है और उसे अपने सहपाठियों  की भाँति विकसित करने के लिए कक्षा में विविध प्रकार के शिक्षण की आवश्यकता हो सकती है । बालक के पीछे  रह जाने के लिए उसे दोषी नही ठहराया जा सकता है, बल्कि उन्हें  कक्षा में भली प्रकार समाहित न कर पाने का जिम्मेदार अध्यापक को स्वंय समझना चाहिए ।
जिस प्रकार हमारा संविधान किसी  भी आधार पर किये जाने वाले भेदभाव को निषेध करता है, उसी प्रकार समावेशित शिक्षा  विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय, शारीरिक , बौद्धिक,  सामाजिक, आर्थिक आदि कारणों से उत्पन्न किसी बालकों की, विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं के बावजूद उन बालकों  को भिन्न देखे जाने के बजाए स्वंत्रत अधिगमकर्त्तों के रूप में देखती है ।
समावेशित शिक्षा का महत्त्व एवं आवश्यकता
क्र    समावेशित शिक्षा प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ, उसकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है ।
क्र    प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित होता है ।
क्र    समावेशित शिक्षा अन्य बालकों, अपने स्वयं के व्यक्तिगत आवश्यकताओं और क्षमताओं के सामंजस्य स्थापित करने में सहयोग करती है ।
क्र    समावेशित शिक्षा सम्मान और अपनेपन की विद्यालय संस्कृति के साथ-साथ व्यक्तिगत मतभेदों को स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करती है ।
क्र    समावेशित शिक्षा बालक को अन्य बालकों के समान  कक्षा गतिविधियों में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करती है ।
क्र    समावेशित शिक्षा बालकों की शिक्षा गतिविधियों में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती है ।
समावेशित शिक्षा सही मायनों में शिक्षा का अधिकार जैसे शब्दों का रूपान्तरित रूप है जिसके कई उद्द्श्यों में से एक उद्देश्य है,विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों को एक समतामूलक शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करना। समावेशित शिक्षा समाज के सभी बालकों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने का समर्थन करती है  ।
शिक्षा में समावेशन के आधार
क्र    प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित होता है ।
क्र    बालकों के सीखने के तौर तरीकों में विविधता होती है । अनुभवों के द्वारा, अनुकरण के माध्यम से, चर्चा, प्रश्न पूछना, सुनना,  चिंतन मनन, खेल क्रियाकलापों, छोटे व बड़े समूहों में गतिविधियों  करना  आदि  तरीकों के माध्यम से बालक अपने आसपास के परिवेश के बारे में जानकारी प्राप्त करता है । इसलिए प्रत्येक बालक को सीखने-सिखाने के क्रम में समुचित अवसर प्रदान करना आवश्यक है ।
क्र    बालकों को सीखने से पूर्व सीखने-सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक होता है इसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्मित करने की जरूरत होती है ।
क्र    बालक उन्ही सीखी हुई बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में उसके अपने परिवेश के कारण भली-भाँति समझ विकसित हो चुकी हो।
क्र    सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी निरन्तर चलती रहती है । अतः सीखने-सीखने की प्रक्रिया  कों इस प्रकार व्यवस्थित किये जाने की आवश्यकता है जिससे बालक पूर्ण रूप से उसमें सम्मिलित हो जाये और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित करें ।
क्र    सीखने-सिखाने की प्रक्रिया आरम्भ करने से पूर्व बालक के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भूगौलिक व राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को जानना आवश्यक है ।
क्र    प्रत्येक बालक की विविधता के प्रति आदर रखना ।
समावेशित शिक्षा हेतु रणनीतियाँ
समावेशित शिक्षा हेतु कुछ रणनीतियाँ इस प्रकार हो सकती है :-
समावेशित विद्यालय वातावरण :-  बालकों की शिक्षा  चाहे वह किसी भी स्तर की हो, उसमें  विद्याालय के वातावरण का  बहुत  योगदान होता है। विद्यालय का वातावरण ही कुछ चीजों  की शिक्षा बालकों को स्वंय भी दे देता है । समावेशित शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि विद्यालय का वातावरण सुखद और स्वीकार्य होना चाहिए । इसके अतिरिक्ति विद्यालय  में  विशिष्ट बालकों की विशिष्ट शैक्षिक, चलिष्णुता, दैनिक आदि  आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक साज-समान शैक्षिक सहायताओं, उपकरणों, संसाधनों, भवन आदि का समुचित प्रबंध आवश्यक है । बिना इनके विद्यालय में समावेशित माहौल बनाने में कठिनाई हो सकती है ।
सबके लिए विद्यालयः-   समावेशित शिक्षा की मूल भावना है एक ऐसा विद्यालय जहाँ सभी बालक एक साथ शिक्षा प्राप्त करते है, परन्तु सामान्यतः इस तरह की बातें देखने और सुनने में आती रहती है कि किसी बालक को उसकी विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने में अपनी असमर्थता दर्शाते हुए, विद्यालय में प्रवेश देने से मना कर दिया या किसी विशेष विद्यालय में उसके दाखिले के लिए कहा हो।
समावेशित शिक्षा के उद्देश्यों को सभी बालकों तक पहुचाने के लिए यह आवश्यक है कि विद्यालय में दाखिले की नीति में परिवर्तन किया जाना चाहिए । हालाँकि शिक्षा के अघिकार अधिनियम 2009 इस सन्दर्भ में एक प्रभावी कदम कहा जा सकता है परन्तु धरातल पर इसकी वास्तविकता में अभी भी संदेह होता है ।
बालकों के अनुरूप पाठ्यक्रम :- बालकों को शिक्षित करने का सबसे असरदार तरीका है कि उन्हे खेलने के तरीकों तथा गतिविधियों के माध्यम से  सीखाने का प्रयास किया जाना चाहिए। समावेशित शिक्षा व्यवस्था के लिए आवश्यक है कि विद्यालय पाठ्क्रम, बालकों की अभिवृत्तियों, मनोवृत्तियों, आकांशाओं तथा क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए निर्घारित किया जाना चाहिए । इसके अतिरिक्त पाठ्क्रम में विविधता तथा पर्याप्त लचीलता होनी चाहिए ताकि उसे  प्रत्येक बालक की क्षमताओं, आवश्यकताओं, तथा रूचि के अनुसार अनुकूल बनाया सकें, बालकों मे विभिन्न योग्यताओं व क्षमताओं का विकास हो सकें, उसे  विद्यालय से बाहर, बालक के सामाजिक जीवन से जो जोड़ा जा सकें, बालकों को सामाजिक रूप से एक उत्पादित नागरिक बनाने में योगदान दे सकें  इसके अतिरिक्त बालक के समय का सदुपयोग करने की शिक्षा प्राप्त हो सकें । 
मार्गदर्शन व निर्दैशन की व्यवस्थाः- विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा एक जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया में नियमित शिक्षक, विशेष शिक्षक, अभिभावक और परिवार, समुदायिक अभिकरणों के साथ विद्यालय कर्मचारियों के बीच सहयोग और सहकारिता शामिल है ।
समावेशित शिक्षा व्यवस्था के अर्न्तगत धर से विद्यालय जाते समय बालक को आरम्भ में नये परिवेश में अपने आपको समायोजित करने में कुछ असुविधा हो सकती है । जैसे आरम्भ में कक्षा के कार्यों में  सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई होना, दोस्तों का आभाव, नामकरण आदि के करण बालक के आत्मविश्वास में कमी होना । इसके अतिरिक्त किशोरावस्था के दौरान होने वाले शारीरिक, मानसिक, सामाजिक परिवर्तनों के कठिनाई के दौर में मार्गदर्शन एवं निर्देशन से बालक को इस संक्रमण काल में काफी सहायता मिलती है । उचित मार्गदर्शन व निर्दैशन से बालक और उसके माता-पिता दोनों ही इन परिवर्तनों के लिए मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से तैयार किये जा सकते है ।

Friday, 8 January 2016

पाठ्यचर्या

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
औपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में पाठ्यचर्या या पाठ्यक्रम (करिकुलम) विद्यालय या विश्वविद्यालय में प्रदान किये जाने वाले पाठ्यक्रमों और उनकी सामग्री को कहते हैं। पाठ्यक्रम निर्देशात्मक होता है एवं अधिक सामान्य सिलेबस पर आधारित होता है जो केवल यह निर्दिष्ट करता है कि एक विशिष्ट ग्रेड या मानक प्राप्त करने के लिए किन विषयों को किस स्तर तक समझना आवश्यक है।

ऐतिहासिक संकल्पना


सदिश पाठ्यक्रम
1918 में इस विषय पर प्रकाशित प्रथम पुस्तक द करिकुलम में[1] जॉन फ्रेंकलिन बौबिट ने कहा कि एक विचार के रूप में पाठ्यक्रम की जड़ें रेस-कोर्स के लिए लैटिन शब्द में है और पाठ्यक्रम का वर्णन ऐसे कार्यों एवं अनुभवों के रूप में किया है जिनके माध्यम से बच्चे अपेक्षित वयस्क के रूप में विकसित होते हैं ताकि वयस्क समाज में सफलता प्राप्त की जा सके. इसके अलावा, पाठ्यक्रम में केवल विद्यालय में होने वाले अनुभव ही नहीं बल्कि विद्यालय एवं उसके बाहर होने वाले गठन कार्य एवं अनुभव अपनी संपूर्णता में समाहित होते हैं; वे अनुभव जो अनियोजित और अनिर्दिष्ट रहे हैं और वे अनुभव भी जिन्हें समाज के वयस्क सदस्यों के उद्देश्यपूर्ण गठन की दिशा में जानबूझकर कर प्रदान किया गया है। (Cf. छवि दाहिनी ओर है)
बौबिट के लिए पाठ्यक्रम एक सामाजिक इंजीनियरिंग का क्षेत्र है। उनके सांस्कृतिक अनुमान एवं सामाजिक परिभाषाओं के अनुसार उनके पाठ्यक्रम निर्माण के दो उल्लेखनीय लक्षण हैं: (i) वैज्ञानिक विशेषज्ञ अपने इस विशेष ज्ञान के आधार पर कि समाज के वयस्क सदस्यों में क्या गुण होने चाहिए एवं कौन से अनुभव ऐसे गुण उत्पन्न करेंगे, वे पाठ्यक्रमों का निर्माण करने हेतु योग्य होंगे तथा यही न्यायसंगत भी होगा और (ii) पाठ्यक्रम को ऐसे कार्य-अनुभवों के रूप में परिभाषित है जो छात्र को अपेक्षित वयस्क बनने के लिए उसके पास होने चाहिए.
इसलिए, उन्होंने पाठ्यक्रम को लोगों के चरित्र का निर्माण करने वाले कार्यों एवं अनुभवों की ठोस वास्तविकता के स्थान पर एक आदर्श के रूप में परिभाषित किया है।
पाठ्यक्रम संबंधित समकालीन विचार बौबिट के इन तत्वों को अस्वीकार करते हैं, परंतु इस आधार को यथावत रखते हैं कि पाठ्यक्रम अनुभवों का दौर है जो मानव को व्यक्ति बनाता है। पाठ्यक्रमों के माध्यम से वैयक्तिक गठन का व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर (अर्थात सांस्कृतिक एवं सामाजिक स्तर पर) पर अध्ययन किया जाता है; उदाहरण के लिए पेशेवर गठन, ऐतिहासिक अनुभव के माध्यम से शैक्षिक अनुशासन). एक समूह का गठन उसके व्यक्तिगत प्रतिभागियों के गठन के साथ ही होता है।
यद्यपि औपचारिक रूप से यह बौबिट की परिभाषा में दिखाई दिया है, रचनात्मक अनुभव के रूप में पाठ्यक्रम की चर्चा को जॉन डेवी के कार्य में भी देखा जा सकता है (जो महत्वपूर्ण मामलों पर बौबिट से असहमत थे). हालांकि बौबिट और डेवी की "पाठ्यक्रम" के विषय में आदर्शवादी समझ शब्द के वर्तमान प्रतिबंधित उपयोगों से अलग है, पाठ्यक्रम लेखक और शोधकर्ता आम तौर पर इसे पाठ्यक्रम की एक समान तथ्यात्मक समझ के रूप में देखते हैं।[2][3]